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बूंद

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वह पहली बारिश की बूंदे, वह गीली मिट्टी की खुशबू। साथ में पंछियों से गुफ्तगू, मौसम की ठंडी महक। वह पहली बारिश की बूंद, गिर पड़ी उस पत्ते पे। साथ उनका सुंदर सा, जान उनमें निराली सी। बातों से महकाए वो, सृष्टि में समाए वो।  कुदरत के वादों ने, बांधी थीं एक अलग ही डोर। लेकिन वो मुसाफिर भी क्या जाने, के आगे अलग ही होना है। मंजिलों से दूर वादों के पार, आख़िरकार हवाओं के सामने, माननी ही पड़ी आज हार। दुनियावालों ने तो कई बीज बोए, मिट्टी में पलकर पेड़ भी पले। जाने किसने उस पेड़ के खट्टे बेर चखाए, आज उन्होने उसे मीठे मानना सिखाए। फर्क था उनमें और हम में, आज वही महसूस होने लगा। बंधनों को हमने ही बांधा था, उलझनों को उन्होंने ही पलाया था। लेकिन कुदरत के सामने तो, आज हमें झुकना ही पड़ा। पहली सी उस बारिश की बूंद को , आज उलझनों को सुलझाना ही पड़ा। आज उलझनों को सुलझाना ही पड़ा।         - काव्यांश ------------------------------------------------- Vah pehli baarish ki bundey, Vah gili mitti ki khushboo. Saath m panchiyo se guftgu, Mausam ki thandi mehek. Vah pehli baarish ki boond, ...